हिंदी साहित्य में रीतिकालीन काव्यधारा के महानतम कवियों में से एक बिहारी लाल चौरासीया (संक्षेप में बिहारी) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उन्होंने अपनी अनूठी शैली, गहन भावों और अलंकारपूर्ण भाषा के कारण साहित्य में स्थायी स्थान प्राप्त किया। उनकी काव्यशैली और रचनाएँ आज भी पाठकों और विद्वानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।
जन्म और प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा
बिहारी का जन्म लगभग 1595 ईस्वी के आसपास हुआ था। कुछ विद्वानों के अनुसार उनका जन्मस्थान ग्वालियर (मध्य प्रदेश) के निकट ओरछा या कानपुर जिले का तिकवापुर नामक स्थान था। परंतु अधिकांश मत यह मानते हैं कि वे उत्तर प्रदेश के गोविंदपुर (ग्वालियर के पास) में जन्मे थे। उनके पिता का नाम केशवदास और माता का नाम ज्ञात नहीं है। बिहारी का पूरा नाम बिहारी लाल चौरासीया था। वे ब्राह्मण नहीं बल्कि कान्यकुब्जी चौरासीया समुदाय से संबंधित थे। बिहारी ने संस्कृत, हिंदी, फारसी और रीति काव्य की शिक्षा प्राप्त की थी। वे अत्यंत मेधावी और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्ति थे। उन्होंने बचपन से ही काव्य और साहित्य में गहरी रुचि ली। वे ब्रज क्षेत्र में रहने के कारण ब्रजभाषा में निपुण हो गए।
जीवन का मोड़ और दरबारी जीवन एवं मृत्यु
बिहारी का विवाह मथुरा की एक कन्या से हुआ था। पत्नी के आग्रह पर वे मथुरा चले गए और वहीं श्रीकृष्ण की भक्ति में भी लीन हो गए। उनका जीवनधारा बदलने का मुख्य मोड़ वहीं से प्रारंभ हुआ। बाद में बिहारी जयपुर (राजस्थान) के राजा जयसिंह प्रथम (मिर्जा राजा जयसिंह) के दरबार में काव्य रचना करने लगे। उन्होंने राजा को समर्पित कई सरस, नीति और श्रृंगार रस से भरपूर दोहे रचे, जिससे वे राजदरबार में अत्यंत प्रिय हो गए। बिहारी की मृत्यु लगभग 1663 ईस्वी में हुई मानी जाती है। उन्होंने अल्पकाल में ही साहित्य की जो सेवा की, वह अत्यंत विलक्षण रही। वे आज भी “नीति काव्य” और “शृंगार रस” के श्रेष्ठतम कवि माने जाते हैं।
बिहारी का साहित्यिक परिचय
बिहारी रीतिकाल के प्रमुख कवि थे। उनका साहित्य सौंदर्य, नीति, प्रेम और काव्य-कला का अद्भुत संगम है। उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना “बिहारी सतसई” है, जिसमें उन्होंने केवल सात सौ दोहे में ही हिंदी साहित्य को अमूल्य निधि दी है। उनकी कविता शैली अत्यंत संक्षिप्त, सारगर्भित और अलंकारिक होती थी। उन्होंने अपनी रचनाओं में श्रृंगार, नीति, भक्ति और प्रकृति चित्रण को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया।
बिहारी की भाषा और शैली
- भाषा: बिहारी की भाषा ब्रजभाषा है जो रीतिकालीन काव्य की प्रमुख भाषा थी।
- शैली: उनकी शैली लाक्षणिक, संकेतिक, गूढ़, अलंकार प्रधान, और छंदबद्ध है।
- बिहारी के दोहे अत्यंत संक्षिप्त होते हैं लेकिन उनमें गहराई बहुत होती है। उन्हें समझने के लिए साहित्यिक और सांस्कृतिक ज्ञान आवश्यक होता है।
- उन्होंने रूपक, उपमा, श्लेष, यमक, अनुप्रास, रूपक, व्यतिरेक, जैसे अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया।
बिहारी की प्रमुख रचना बिहारी सतसई (Bihari Satsai)
यह उनकी एकमात्र प्रसिद्ध और प्रमाणिक काव्य रचना है। इसमें लगभग 700 दोहे हैं, जिन्हें उन्होंने क्रमबद्ध रूप से नहीं लिखा था, बल्कि उनके जीवनकाल में अलग-अलग समय पर लिखे गए थे। इन्हें बाद में एकत्र कर के ग्रंथ रूप में प्रस्तुत किया गया। इस ग्रंथ में तीन प्रमुख विषय मिलते हैं:
- शृंगार रस (वात्सल्य, संयोग, वियोग)
- नीति विषयक दोहे
- भक्ति और कृष्ण प्रेम
बिहारी सतसई की विशेषताएं:
विशेषता | विवरण |
छंद | दोहा (मात्रिक छंद पर आधारित) |
रस | मुख्यतः श्रृंगार रस (विशेषकर संयोग-वियोग) |
नायक-नायिका | श्रृंगारिक स्थितियों का अत्यंत सुंदर चित्रण |
कला | प्रतीकात्मक भाषा, संक्षिप्तता, कलात्मक बिंब |
बिहारी के प्रसिद्ध दोहे (उदाहरण)
नैनन नीर भये, काजर बनि गइ अंग।
जिनके आँसू पोछिए, तिनके काजल भंग।।
(भावार्थ: जिनकी आँखों के आँसू पोछे जाते हैं, उनके नेत्रों में लगा काजल भी मिट जाता है।)
कहत, नटत, रीझत, खिजात, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत हैं, नैनन हीं सों बात।।
(भावार्थ: नायक-नायिका केवल नेत्रों से ही सारा संवाद कर रहे हैं — कहते हैं, रूठते हैं, प्रसन्न होते हैं, लजाते हैं।)
सरस बिरस सब भाँति, रसखान रहे रसखोर।
कवित्त बिहारी को कहैं, रसिकन मस्तन चोर।।
(भावार्थ: रसिक लोग बिहारी को रस का चोर कहते हैं क्योंकि उन्होंने हर रस को अपने शब्दों में बाँध लिया है।)
बिहारी की साहित्यिक विशेषताएं
क्षेत्र | विवरण |
काल | रीतिकाल (1600–1700 ई.) |
विधा | नीति, श्रृंगार, भक्ति |
भाषा | ब्रजभाषा |
छंद | दोहा |
काव्य गुण | अलंकार, संक्षिप्तता, गूढ़ता, चित्रात्मकता |
विशेषता | अर्थगर्भित शैली, संकेतात्मक प्रस्तुति |
बिहारी और रीतिकाल
रीतिकाल को श्रृंगार युग या राजाश्रय युग भी कहा जाता है। इस काल के कवि मुख्यतः राजदरबारों में रहते थे और श्रृंगारिक काव्य की रचना करते थे। बिहारी इस युग के प्रतिनिधि कवि थे। उनकी सतसई ने यह प्रमाणित कर दिया कि कम शब्दों में भी गहन काव्य लिखा जा सकता है।
बिहारी ने दोहे जैसे लघु छंद को ऐसा प्रभावशाली बना दिया कि वह युगों तक जीवंत रहेगा। उनकी रचना ‘बिहारी सतसई’ न केवल काव्य सौंदर्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि उसमें जीवन-दर्शन, प्रेम और नीति के भी गूढ़ अर्थ निहित हैं। वे भाव, भाषा और कला के ऐसे चितेरे थे जिन्होंने कम शब्दों में गहरी बात कहने की परंपरा स्थापित की।